आप अगर सच्चे साधक हैं, तो आपके अंदर भगवान को प्राप्त करने के लिए तड़प वाली भक्ति व आध्यात्मिक तरीका, आपको मालूम होना ही चाहिएः स्वामी गोकुलानन्द
रांची स्थित योगदा सत्संग आश्रम के श्रवणालय में रविवारीय सत्संग में शामिल योगदा भक्तों को संबोधित करते हुए स्वामी गोकुलानन्द गिरि ने कहा कि जब वे प्रवेशार्थी के रूप में रांची आश्रम आये थे, तब उन्होंने तत्कालीन स्वामी जी से पूछा था कि हमें आश्रम में कैसे रहना है? यहां का क्या जीवन शैली है? वो हमें बताया जाये। तब उस वक्त स्वामी जी ने जो उन्हें बताया, उससे यही पता चला कि जो यहां की जीवन शैली है, वो जीवन शैली प्रत्येक साधकों पर लागू होती है, जो ईश्वर की खोज में लगे हैं।
स्वामी गोकुलानन्द गिरि ने कहा कि कोई भी व्यक्ति कहीं भी रहकर किसी भी तरह या तरीके से पूजा पाठ करता है, वो दरअसल सुख की आकांक्षा को लेकर ही करता है और जब उसे सुख की प्राप्ति हो जाती है, तो वह उसी में खो जाता है। ऐसे में जिन्हें इस प्रकार की सुख की चाहत होती है, वो इसी संसार में रह जाते हैं। लेकिन जिन्हें ईश्वर की खोज की ललक होती है, जो ईश्वर की खोज में ही सारा सुख ढूंढते हैं, वहीं सच्चे साधक होते हैं और उन्हें ईश्वर की प्राप्ति होती ही हैं।
स्वामी गोकुलानन्द ने कहा कि याद रखिये, ऐसे साधकों के लिए ही योगदा सत्संग सोसाइटी और सेल्फ रियलाइजेशन फैलोशिप बनी हैं। जो ऐसे साधकों का मार्ग प्रशस्त करती है। उन्हें बताती है कि कौन सा मार्ग उनके लिये सही रहेगा। जो वाईएसएस/एसआरएफ की बातों का अनुसरण करते हैं, उनको इसका लाभ मिलता है और जो ऐसा नहीं करते, उनके लिए एक ही संदेश है कि वे भी सच्चे साधक बने और खुद को ईश्वर की खोज में लगाएं।
उन्होंने कहा कि श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय तीन का श्लोक चार कहता है कि मनुष्य न तो कर्मों का आरम्भ किये बिना निष्कर्मता को यानी योगनिष्ठा को प्राप्त होता है और न कर्मों के केवल त्याग मात्र से सिद्धि यानी सांख्य निष्ठा को ही प्राप्त होता है। उनका कहना था कि बिना कर्म को आरम्भ किये, कर्म से भी मुक्ति नहीं मिल सकती। जब तक हम सांस लेते हैं, हम कर्म से मुक्त नहीं हो सकते। हमें कर्म करना ही पड़ेगा। कर्म नहीं करने से निष्कर्मता को प्राप्त नहीं किया जा सकता। ठीक उसी प्रकार केवल संन्यास ले लेने से कर्म से मुक्ति नहीं मिल जाती। हर हाल में कर्म करना ही है।
स्वामी गोकुलानन्द ने कहा कि संन्यास लेनेवाले आलसी नहीं होते। बल्कि वे औरों से ज्यादा कड़ी मेहनत करते हैं। वे यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, ध्यान, समाधि और नाना प्रकार की आध्यात्मिक सेवाओं में खुद को संलिप्त रखते हैं। यहीं नहीं, जो भगवान को चाहते हैं, वे सभी यही करते हैं। उन्होंने कहा कि गुरुजी भी यहीं कहते हैं कि केवल संन्यासियों को ही नहीं, बल्कि हर साधक को ऐसा ही करना चाहिए।
उन्होंने कहा कि गुरुजी कहा करते थे कि प्रत्येक साधक को पहला काम यह करना चाहिए कि उसे दिन में दो बार ध्यान करना चाहिए। एक सुबह और दूसरा शाम या रात को। इसके साथ अगर ग्रुप मेडिटेशन हो तो फिर क्या कहना। दूसरा, कोई भी काम करें तो भगवान का नाम श्रवण करते हुए उस काम को करें। अगर ऐसा नहीं करते तो इसका अभ्यास करने का प्रयास करना चाहिए। तीसरा, समय को कभी भी नष्ट नहीं करें, उसका उपयोग करना सीखें। हमेशा समय को ईश्वर की खोज में खर्च करें।
उन्होंने कहा कि गुरुजी का चौथा संदेश यह था कि हमेशा अपने आसपास सकारात्मक वातावरण बनाये रखें। हमेशा सत्संग में भाग लें। बिना सत्संग और बिना सकारात्मक वातावरण के आप प्रगति नहीं कर सकते। क्योंकि यही आपको मार्ग प्रशस्त करता है। पांचवां, गुरुजी के साथ हमेशा अपने संबंध को मजबूत बनाने की कोशिश करें। वो तभी होगा, जब आप गुरु जी की बातों पर ध्यान दें। उनके टीचिंग पर आप ध्यान दें। उनकी बताई बातों पर सिर्फ ध्यान ही नहीं देना, बल्कि उसे अपने जीवन में उतारने की कोशिश करना भी चाहिए। छठां, कोई भी काम करें, तो उस काम पर खुद को फोकस करें, अपने मन को भटकनें न दें। क्योंकि माया हमेशा आपके मन को भटकाने का काम करती है। मन को हमेशा नियंत्रित कर, उसे साधना में लगाने का प्रयास होना चाहिए। मन को शांत व नियंत्रित करने का सीधा उपाय हं-सः है। इसे नियमित रूप से करें।
उन्होंने कहा कि ब्रह्मचर्य दस ज्ञानेन्द्रियों को नियंत्रण में रखता है। ये दस ज्ञानेन्द्रियों में पांच ज्ञानेन्द्रियां हैं और पांच कर्मेन्द्रियां हैं। जिस उद्देश्य के लिए जो ज्ञानेन्द्रियां बनी है। उन उद्देश्यों को पूर्ति कैसे करना है, इस पर ध्यान देने का काम ब्रह्मचर्य ही करता/कराता है। इसलिए किसी को भी ब्रह्मचर्य को हलके में नहीं लेना चाहिए। उन्होंने कहा कि जब आपके पास ध्यान और अपने काम से भी अधिक समय मिल जाये, तो उस समय को भी व्यर्थ न गवाएं, उस समय को आप गुरुजी द्वारा लिखित पाठों/पुस्तकों को पढ़ने में बिताएं। ये आपके लिए ज्यादा उचित होगा।
उन्होंने कहा कि गुरुजी ने हमें यही बताया है कि सभी से प्रेम करो, केवल उन्हीं से नहीं, जो आपके अपने हैं या आपके लिए कुछ करते हैं, उनके लिए भी, जो आपके कुछ भी नहीं हैं, चाहे वे आपसे घृणा ही क्यों न करते हो। हमेशा स्वयं को अनुशासित में रखें। स्वयं को आत्मा से ठीक ढंग से जुड़ने की कला सीखें। किसके साथ कैसा व्यवहार होना चाहिए, ये कला आपको आनी ही चाहिए। अंत में आप अगर सच्चे साधक हैं, तो आपके अंदर भगवान को प्राप्त करने के लिए तड़प वाली भक्ति/आध्यात्मिक तरीका, आपको मालूम होना ही चाहिए।
