विवाह जैसी पवित्र बंधन को इवेन्ट्स बना, अनैतिक रूप से कमाए हुए धन का, विवाह में प्रदर्शन करनेवालों, तुम्हारी इन हरकतों से देश नीचे जा रहा है, खुद में परिवर्तन लाओ, नहीं तो ईश्वर तुम्हें माफ करने नहीं जा रहा
विवाह या अन्य पारिवारिक धार्मिक अनुष्ठानों के अवसर पर अपने धन-वैभव का प्रदर्शन करना/कराना मूर्खता के सिवा कुछ और हो ही नहीं सकता। यह नई प्रथा पूरे देश में भ्रष्टाचार को जन्म दे रही हैं। इसकी शुरुआत का श्रेय भी राजनीतिक दलों के नेताओं को ही जाता है। मेरी आंखों ने देखा है कि कैसे एक स्वयं को पिछड़ा घोषित करनेवाले एक नेता ने अपने मुख्यमंत्रित्व काल में अपनी पहली बेटी की शादी इस प्रकार से की, कि उसे देखकर अन्य लोगों ने भी वैसे ही अपने बेटे-बेटियों की शादी करने की ठान ली।
नतीजा यह हुआ कि आज मध्यमवर्गीय परिवार चाहे उसके पास कुछ हो या न हो। वो भी अब इस दिखावे के फैशन में खुद को डूबाकर, अपनी बची-खुची मेहनत की कमाई को शादी बन चुके इवेन्ट्स में फूंकने की ठान ली है। आश्चर्य है कि कुछ पैसों में ही जो चीजें सम्पन्न हो जानी है। उसके लिए भी लोग अब लाखों खर्च करने में तूले हैं। ऐसे कार्यक्रमों में पैसों की बर्बादी तो होती हैं। भारी मात्रा में अनाजों की भी बर्बादी होती है। खासकर उस देश में जहां एक बड़ी आबादी भूखा सोने को मजबूर हैं। जहां की सरकार आज भी एक बड़ी आबादी को मुफ्त में भोजन देने के लिए नाना प्रकार की योजनाएं चला रही हैं।
आश्चर्य हैं कि लोगों की मूर्खता में डूबने की इस महामारी को इवेन्ट्स का नाम देकर इस प्रकार का आयोजन करनेवालों ने मध्यमवर्गीय परिवारों की नब्ज पकड़ ली हैं और वे इन मूर्खों से कैसे पैसे निकालने हैं। वो दिमाग लगाकर उनसे भारी संख्या में धन इकट्ठे कर ले रहे हैं। लेकिन इन मूर्खों को पता ही नहीं लग रहा। देखने में यह भी आ रहा है कि आजकल अनैतिक रूप से कमानेवाले माता-पिता के बच्चों की, बहुत ही कम समय में साफ्टवेयर इंजीनियरिंग की नौकरी लग जा रही हैं। परिणाम हैं कि उनके पास कम ही समय में बेपनाह पैसे भी आ गये हैं। बुद्धि तो हैं नहीं। ये करेंगे क्या? ऐशे-मौज में पैसे खर्च करेंगे। इसलिए इनका पहला मौका होता है, शादी में खर्च करने का, ले-देकर ये ऐसे अवसरों पर पैसे को पानी में बहा देते हैं।
ये मूर्खों का समूह ऐसा-ऐसा तरकीब भी निकाल रहा हैं कि पूछिये मत। एक को मैंने देखा कि लड़केवाले अहमदाबाद में रहते थे और लड़की वाले रीवा मध्य प्रदेश में। लेकिन दोनों ने शादी की रांची आकर। मैंने पूछा कि आप लोग दोनों दूसरे प्रदेश के रहनेवाले, यहां झारखण्ड में शादी क्यों कर रहे हैं? दोनों का उत्तर था – बस यूं ही। खर्च तो कही भी करना था। कर दिया। अब ये बेसिर-पैर की बातों को आप क्या कहेंगे?
कुछ दिन के बाद, इसी परिवार के लोग फिर हमें मिले। दोनों के मुंह लटके थे। पता चला कि नौकरी चली गई है। जैसे-तैसे जीवन घिसट रहे हैं। मैंने पूछा कि शादी में कितनी खर्च हुई थी। उनका उत्तर था – अब छोड़िये, उस पर क्या बात करना। अरे भाई कैसे छोड़ दें। उस दिन तो आप सभी अडानी और अंबानी बने हुए थे और आज लखानी चप्पल भी पहनने की औकात नहीं। हमारे बड़े-बुजुर्ग ऐसे ही नहीं कह गये कि चाल चलो सादा, निभे बाप दादा। अरे मूर्खों, महात्मा गांधी राजकोट के दीवान के बेटे थे। आप लोगों से ज्यादा उनके पास दौलत थी। जब देश गुलाम था। फिर भी इस शख्स ने सारे फैशन को श्रद्धांजलि देकर लँगोटी पहन ली। आजीवन पहने रखा। उस समय भी आपको कुछ लोग ऐसे मिलेंगे, जो कहते थे कि उनका शोषण हुआ हैं और वे हमेशा कोट-पतलून में ही नजर आये। गांधी सामान्य से महात्मा हो गये। राजकोट का वो शख्स हर किसी की सीना चीरकर उनके दिलों में बस गया और बाकी की क्या स्थिति हैं, समझने की कोशिश करिये…
रांची की ही एक घटना है एक अखबार के प्रधान संपादक के यहां शादी थी। उस प्रधान संपादक ने अपने यहां हुई शादी में आईएएस-आईपीएस का समूह आये, इसके लिए अपने रिपोर्टरों को कार्ड थमा दी। बेचारा रिपोर्टर क्या करता? उसने एक दो आईएएस-आईपीएस के यहां कार्ड लेकर गया। जिसमें कुछ ने कहा कि भाई, मैं तो आपके प्रधान संपादक को जानता तक नहीं और कभी उनसे कोई बात की हैं। ऐसे में उनके यहां आयोजित कार्यक्रम में मेरा क्या काम? आपके यहां शादी-विवाह रहता और कार्ड देते तो बात समझ में आती, ये क्या माजरा है? मतलब अपने यहां शादी या कोई कार्यक्रम में आईएएस-आईपीएस को बुलवाना, उन्हें आमंत्रित करना भी एक स्टेटस सिंबल बन चुका है। मतलब शादी के नाम पर कुछ भी करो। चलेगा।
मेरे भी दो संतानें हैं। हमने भी अपने दो बेटों की शादी की है। लेकिन बहुत ही सादगी से। पैसों से मैं इतनी भी गरीब नहीं था कि मैं अपने बेटों की शादी में पैसे न लूटा सकूं। लेकिन इन बेकार के कामों के लिए हमारे पास पैसे नहीं हैं। मैं चाहता तो अपने बेटे की शादी में मुख्यमंत्री, नेता प्रतिपक्ष व कई आईएएएस-आईपीएस को अपने यहां आमंत्रित कर सकता था। लेकिन मैंने इसकी जरुरत नहीं समझी। जरुरत ही क्या हैं? झूठी शान बघारने की। झूठी सम्मान बटोरने की। ऐसा करने से हम थोड़े ही महान या महात्मा हो जायेंगे। हम तो वहीं रहेंगे, जो हैं।
अरे ईश्वर ने आपको पैसे दिये हैं। तो ढूंढों, उन लड़कियों को, जिनकी शादी पैसों के अभाव में टूट जा रही हैं। ढूंढों उन लड़कियों के माता-पिता को, जिनके पास बारातियों के खिलाने या उनके स्वागत के लिए पैसे नहीं हैं। मैं दावा करता हूं कि जिस दिन ऐसा करोगे, तुम्हारा जीवन धन्य व सार्थक हो जायेगा और उनकी दुआओं से तुम्हारा ये जीवन और इसके बाद आनेवाला जीवन तुम्हारा सुंदर और दिव्य होगा। लेकिन ऐसा करने के लिए भी ईश्वरीय कृपा की आवश्यकता होती है।
अंत में। एक ने हमसे पूछा कि सर आपको किसी की शादी या पार्टी में नहीं देखता हूं। आखिर क्यों? मेरा उत्तर था – कैसे जाऊं, जिस शादी या पार्टी में अनैतिक रुप से कमाये गये धन का प्रदर्शन होता हो। कैसे जाऊं, जिस शादी या पार्टी में वैदिक मंत्रों की धून की जगह अश्लील गीतों पर थिरकते वर/वधू के माता-पिता व रिश्तेदारों का समूह दिखाई देता हो। कैसे जाऊं, जहां अनैतिक व दोहरे चरित्रवालों के समूहों को सम्मान देने के लिए वर-वधू के माता-पिता लालायित रहते हो। वहां मेरे जैसे व्यक्ति का क्या काम?
जाने के लिए तो मैं आज भी जाता हूं। लेकिन वहीं, जहां मेरा जमीर एलाउ करता है। भोजन करता हूं। जहां मेरा जमीर एलाउ करता हैं। क्योंकि हमारे देश की संस्कृति हमें सिखाती है। जैसा का खाओ अन्न। वैसा बने मन। तो मैं ऐसे लोगों के कार्यक्रम में जाकर, अपने मन को क्यों बिगाड़ूं। उससे अच्छा है कि अपने घर में रुखी-सूखी खाकर ईश्वरीय चिन्तन में खुद को क्यों न झोंक दूं।
