अपनी बात

रंजन झा के शब्दों में – बाबूलाल मरांडी ने कहा था धनबाद के पत्रकार कमीशन खाते हैं, जिस तथाकथित समाजसेवी के घर ईडी ने हाल ही में छापा मारा, वो एक पत्रकार को लतियाया भी है, फिर भी …

धनबाद के एक पुराने पत्रकार हैं – रंजन झा। बहुत पुराने, कट्टर ईमानदार, अपने पेशे के प्रति वफादार, आज भी उनके सीने में भ्रष्टाचार और भ्रष्ट लोगों के खिलाफ कुछ लिखने की लौ जलती रहती है। वे खुलकर लिखते भी हैं। आज भी लिखा है। आज जो उन्होंने लिखा है – वो धनबाद के पत्रकारों को समर्पित हैं। जिन्हें, उन्होंने पतलकार शब्द से संबोधित किया है। धनबाद के पत्रकारों को लेकर इस बार उन्होंने ऐसा ऑपरेशन किया है कि धनबाद के पत्रकारों को दामोदर नदी में जाकर …. ….. चाहिए।

उन्होंने अपने फेसबुक पर विस्तार से इन पतलकारों के कुकर्मों को लेकर मनचाहा रंग भरा है। जो इन रंगों के जानकार हैं। उन्हें ये समझते देर नहीं लगेगी कि यह सब किनके बारे में लिखा गया है। उन्होंने राज्य के नेता प्रतिपक्ष बाबूलाल मरांडी का भी जिक्र किया है। जब बाबूलाल मरांडी ने धनबाद प्रेस क्लब के पास एक राजनीतिक धरने के दौरान साफ कहा था कि धनबाद के पत्रकारों को कोयला माफियाओं द्वारा कमीशन मिलता है।

रंजन झा ने रांची के एक पत्रकार जो धनबाद के जेल में कई महीनें बंद रहा। उसका भी जिक्र किया है। जिक्र उस पत्रकार का भी हैं, जो धनबाद के पुलिस पदाधिकारी के लिए वसूली भी किया करता था। जिक्र उस नेता का भी हैं, जिसके घर पर हाल ही में प्रवर्तन निदेशालय के अधिकारियों ने छापा मारा था। जिसके घर पर ईडी के आने पर कुत्ता तक छोड़ दिया गया था। वो नेता जो एक राजनीतिक दल से भी जुड़ा है।

जिसके घर पर ईडी की छापामारी के बाद कई राजनीतिक कार्यकर्ता व पत्रकार रोने भी लगे थे। बताया जाता है कि वो नेता समय-समय पर पत्रकारों को लतियाता भी हैं। फिर भी उसकी लात खाने के बावजूद भी वहां कई धनबाद के पतलकार उसकी सेवा में लगे रहते हैं। बताया जाता है कि वो नेता कई अखबारों को फुल पेज का विज्ञापन भी देता हैं। जिससे धनबाद के पत्रकार उसकी शरण में रहना पसन्द करते हैं।

रंजन झा ने धनबाद के पत्रकारों की पोल खोलने में कोई कसर नहीं छोड़ी हैं। उन्होंने साफ लिखा है कि कैसे वहां के पत्रकार बेटी की शादी के नाम पर माफियाओं से वसूली करते हैं। रंजन झा ने हालांकि धनबाद के पतलकारों (पत्रकारों) के बारे में लिखा हैं। लेकिन सच्चाई यह है कि ये हालात झारखण्ड के हर उन शहरों या देश के उन महानगरों की हैं, जहां माफियाओं/भ्रष्ट नौकरशाहों/भ्रष्ट पुलिस पदाधिकारियों/भ्रष्ट व पतित राजनीतिबाजों की चलती हैं और जिनके आड़ में पतलकारों का समूह अपनी रोटी सेंकता हैं। लीजिये अब देखिये कि रंजन झा ने फेसबुक पर क्या लिखा?

‎रंजन झा उवाच – “इस शहर में बड़े-बड़े तोपची पत्रकार हैं। बहुत से लोग सिर्फ नौकरी बजा रहे हैं। बहुत से लोग नेशनल, इंटरनेशनल मामले पर तीन-चार लाइन लिखकर झूमते हैं। हां, मैं पतलकार हूं। बड़ा तीसमार हूं। ऐसे लोग को बोलिए यहां के शासन पुलिस से संबंधित मामले पर लिखें तो कुछ यह कह कर पतली गली धर लेंगे कि हम छोटे मामलों पर नहीं लिखेंगे।

झारखंड के विपक्ष के नेता बाबू लाल मरांडी पत्रकार क्लब के बाहर खुले आम कहते हैं कोयला चोरों से पत्रकारों को कमीशन मिलता है। तब भी किसी ने चूं नहीं बोला। किसी ने बाबूलाल मरांडी को चुनौती देने का साहस नहीं किया। आख़िर है क्या? क्या पत्रकारिता है। लिखने से कुछ नहीं होगा, ऐसा सोचनेवाले करते क्या हैं?

वह एसएसपी संजीव कुमार का दौर था जब पतलकार उनके करीब थे। कोयलाचोर से उनको डायरेक्ट पुलिस के माध्यम से पैसा मिलता था। कुछ सीधे कोयला चोर भट्ठे वालों का दोहन करते थे। तब एक ऊंची पहुंचवाले भट्ठा मालिक कोयला चोर ने दूसरे कोयला चोर पर आरोप लगाया। मामले में शामिल दूसरे कोयला चोर के साथ मिलकर ब्लैकमेलिंग और षड्यंत्र के आरोप में पुलिस ने रांची के एक तोपची पत्रकार को जेल भेजा।

मामले में पुलिस ने एक अन्य पत्रकार को पकड़ा। उसका 164 के तहत बयान दिलाया। नतीजा, तोपची पत्रकार कई महीने जेल में बंद था। पत्रकारिता के नाम पर कोयला चोरों के साथ मिलीभगत का यह नंगा सच सबने देखा। फिर भी पत्रकार ख़ामोश रहे। उस कमाई के बल पर पत्रकार क्लब के शीर्ष पर जाकर वसूलीबाज बैठ गया।

लोगों ने बड़े फख्र से शपथ ली। पत्रकारिता के उच्च मापदंडों के पालन की। शपथग्रहण को गंभीरता से सजाने के लिए एक कार्यरत थे, साहब को बुला लिया। इसके बाद जब शीर्ष पर बैठे वसूलीबाज ने अपना असली कार्यक्रम शुरू किया तो कुछ गैरतमंद पत्रकारों ने विरोध किया। वसूलीबाज का पावर सीज किया। पर करते क्या? वह वसूलीबाज दूसरे छोटे-छोटे वसुलीबाज पत्रकारों के वोट से जीत कर आया था, वह फिर से पावर में आ गया।

उसके बाद सबने उसे गंगा से ज्यादा पवित्र माना लिया। यहां के अखबारों का क्या? सब तो यहां की काली कमाई में ही हिस्सेदार हैं। वह बंद हो जाए तो अखबार बंद हो जाए। समय गवाह है, यहां के पतलकारों ने अपनी बेटियों की शादी के नाम पर लाखों बटोरे। हर साख पर उल्लू बैठा है‌। अंजाम है, पत्रकारिता के सिवा सब कुछ हो रहा है। यह नया नहीं है। नया है बेहयापन। इन सबके बाद जब मैं दलाल पत्रकार लिखता हूं तो उनमें से कोई कमेंट करता है, आप पत्रकारों के बारे में ऐसा नहीं लिखें? क्यों?

एक दौर था जब तमाम वसूलीबाजों के रहते भी यहां पत्रकारिता हुई। लोगों ने माफिया, कुशासन और ज़ुल्म के खिलाफ आवाज बुलंद की। आज वसूलीबाज पत्रकार पिटता है तो पतलकार हुआं-हुआं कर उठते हैं। प्रति फोटो वसूली करनेवाले के लपेटे में पत्रकार क्लब पर बांध लेकर गुंडा दौड़ता है, तो कुछ नहीं कर पाते हैं। यह पतलकार समाज की रक्षा क्या करेंगे, उनकी आवाज कैसे बनेंगे, जो खुद अपनी सुरक्षा नहीं कर सकते।

‎एक तो बात लिखबे नहीं किए। समाजसेवी का। जिनके घर ईडी का हाल में छापा पड़ा। उसने एक पत्रकार को छापा के समय लतियाया। इसके बाद भी पत्रकार सब उनके यहां जी हजूरी करने पहुंच गए। पापी पेट का सवाल है। फ़ूल पेज विज्ञापन भी तो वही देगा। दुधारू गाय की लताड़ सही।”

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