संतुलन का सबसे सुंदर उदाहरण काम के लिए ईश्वर और ईश्वर के लिए काम को नजरंदाज कभी नहीं करें: ब्रह्मचारी अतुलानन्द
रांची स्थित योगदा सत्संग आश्रम में आयोजित रविवारीय सत्संग में भाग ले रहे योगदा भक्तों को संबोधित करते हुए ब्रह्मचारी अतुलानन्द ने कहा कि जब तक आपके जीवन में संतुलन नहीं हैं, आप अपने जीवन को बेहतर स्थिति में नहीं ला सकते। आप पूर्णरुपेण आध्यात्मिक सुख का आनन्द नहीं ले सकते। ईश्वरीय कृपा का सुख नहीं पा सकते।
उन्होंने कहा कि सच्चाई यही है कि पश्चिम में ईश्वर को लेकर ज्यादा रिसर्च नहीं किया गया। जबकि भारत में सृष्टि के जन्म से ही हमारे देश के ऋषियों-मनीषियों ने ईश्वर की खोज को ही अपना प्रमुख लक्ष्य माना। जिसका परिणाम यह हुआ कि पश्चिम भौतिक जगत में सफलता पाया और भारत के हिस्से में शांति और आनन्द आया। जिसकी प्राप्ति के लिए अब पश्चिम व्याकुल है।
ब्रह्मचारी अतुलानन्द ने कहा कि परमहंस योगानन्द ने इसीलिये पश्चिम और पूर्व दोनों में जो अच्छाइयां हैं। उसको लेकर आगे बढ़ने की कोशिश की। दोनों में संतुलन बनाकर चलने को कहा, क्योंकि बिना दोनों में संतुलन बनाये, एक अच्छे संसार की कल्पना नहीं की जा सकती। उन्होंने श्रवणालय में उपस्थित लोगों से एक प्रश्न किया कि आप कैसे समझेंगे कि आपके जीवन में संतुलन है?
इस संतुलन को समझाने के लिए उन्होंने एक सुंदर दृष्टांत दिया। उन्होंने कहा कि भारत में एक महान ऋषि हुए। जिनका नाम वेद व्यास था। उन्होंने अपने आध्यात्मिकता के बल पर एक उन्नत आत्मा को पुत्र के रूप में जन्म दिया। जिनका नाम शुकदेव था। जब शुकदेव सात साल के थे। तब वे सद्गुरु की तलाश में निकल पड़े। वेद व्यास ने जब उनके मनोस्थिति को जाना, तो उन्होंने राजा जनक के पास उन्हें भेजा।
राजा जनक ऐसे महान आत्मा थे। जो राजा और संत दोनों थे। भारत में ऐसे कई महान राजा हुए, जो राजा होने के बावजूद संत की तरह अपने जीवन को जीया है। उन्होंने कहा कि राजा जनक के पास जब शुकदेव पहुंचे। तब उन्होंने घंटों राजा जनक से बातचीत की। लेकिन उन्हें संतुष्टि नहीं मिली। चूंकि राजा जनक अध्यात्म के उच्च शिखर तक पहुंच चुके थे। उन्होंने शुकदेव के मन में क्या चल रहा है, जान लिया।
इसी बीच प्रहरी ने आकर महाराज जनक को कहा कि जंगल में लगी आग, महल की ओर बढ़ रही है। राजा जनक ने कहा कि तुमलोग अपने प्राणों की चिन्ता करो और हमें मेरे हाल पर छोड़ दो। इधर आग महल की ओर बढ़ती जा रही थी। एक समय ऐसा भी आया कि आग राजा जनक व शुकदेव की तरफ बढ़ी। शुकदेव ने अपनी पुस्तकें संभाली और आग से बचने के लिए भाग खड़े हुए। उधर राजा जनक ने भागने की अपेक्षा हाथ उठाया और आग पर काबू पा लिया।
शुकदेव ने जब ये देखा तो आश्चर्य में पड़ गये, पूछा ये कैसे संभव हैं। राजा जनक ने कहा कि तुम अपने पुस्तकों पर ज्यादा अटैच थे। इसलिए पुस्तक लेकर आग से बचने की कोशिश की। जबकि मैं तुम्हारे साथ रहने के बावजूद ईश्वर से ज्यादा अटैच था। एकाकार था। इसलिए मेरा आग अहित करेगा, इसकी संभावना हमें न के बराबर थी।
राजा जनक ने शुकदेव की बाद में परीक्षा ली। उन्होंने दो दीपक शुकदेव को दिये और कहा कि ये तेल से भरा दीपक लेकर महल में घुमो। याद रखना, तेल से भरा दीपक बुझना नहीं चाहिए और न दीपक से भरे तेल से तेल का एक बूंद गिरना चाहिए। इस दौरान तुम्हें महल के एक-एक चीज पर ध्यान भी देना है, जिसकी जानकारी उन्हें देनी पड़ेगी। शुकदेव ने ऐसा ही किया। वे राजा जनक के पास कुछ देर में पहुंचे। उन्होंने कहा कि न तो दीपक से एक तेल का बूंद नीचे गिरा और न ही दीपक बुझा।
लेकिन राजा जनक ने ये पूछा कि महल में आपने क्या-क्या देखा। शुकदेव बताने में असमर्थ थे। उन्होंने राजा जनक को कहा कि चूंकि उनका ध्यान सिर्फ दीपक के न बूझने और तेल का एक बूंद भी नहीं छलके। इस ओर ही था। बाद में फिर से राजा जनक ने यही काम दिया। लेकिन दूसरी बार न तो दीपक बुझा और न तेल गिरा। शुकदेव महल की सारी चीजों के बारे में पूछने पर सारी बातें बता दी।
राजा जनक ने कहा कि अब तुम परीक्षा में पास हो चुके हो और यह इसलिए हुआ, क्योंकि तुम दीपक से अटेच नहीं थे। अगर दीपक से अटैच हो जाते तो फिर अनुतीर्ण हो जाते। उन्होंने कहा कि राजा जनक और शुकदेव का यह प्रकरण बताता है कि कोई भी काम ईश्वर से बाहर नहीं हैं। कोई भी काम करो, ईश्वर का कार्य समझ कर करो, तो जीवन में संतुलन बना रहेगा।
ब्रह्मचारी अतुलानन्द ने कहा कि आप किसी भी स्थिति/परिस्थिति में हैं। वो प्रॉब्लम नहीं हैं, लेकिन जब स्थितियों और परिस्थितियों के साथ आप अटैच हो जाते हैं तो प्रॉब्लम शुरु हो जाती है। आप ये क्यों नहीं समझते कि इस दुनिया में कुछ भी हमारा नहीं हैं। ईश्वर ने हमें सिर्फ कुछ पल के लिए उपयोग करने के लिए दिया है।
उन्होंने कहा कि आप कोई काम करें। लेकिन ईश्वर को नहीं भूलें। जो लोग कोई काम करते हैं और ईश्वर को भूल जाते हैं। स्वयं को उसमें लगा देते हैं। दरअसल वे भौतिकता से जुड़ जाते हैं। ऐसे लोग आर्थिक तनाव में फंस कर, स्वयं को युद्ध में झोंक देते हैं। उन्होंने संतुलन का सबसे सुंदर उदाहरण यह कहते हुए कहा कि काम के लिए ईश्वर और ईश्वर के लिए काम को नजरंदाज कभी नहीं करें।
उन्होंने कहा कि जब परमहंस योगानन्द जी 1952 में महासमाधि लिये। तब उन्होंने अपने प्रिय शिष्य राजर्षि जनकानन्द जी को अपना काम सौंपा। जनकानन्द जी के पास और भी बहुत सारे काम थे। गुरुजी ने कहा था कि वे सुबह और शाम का ध्यान कभी नहीं छोड़े। राजर्षि जनकानन्द जी ने अपने ऑफिस में ही सुबह का ध्यान करना शुरु कर दिया और अपने ऑफिस के बाहर एक छोटा बोर्ड लगा देते। कोई उन्हें डिस्टर्ब न करें, कांफ्रेस में हैं। सच्चाई भी यही था कि वे ध्यान करते थे, तो कांफ्रेस में तो थे। वो कांफ्रेस ईश्वर का था।
ब्रह्मचारी अतुलानन्द ने कहा कि आप कोई भी काम करें, उस काम को ईश्वर को सौंप दें। जैसे ही आप किसी काम को ईश्वर को सौंपते हैं। वो काम कर्मयोग में परिणीत हो जाता है। उन्होंने कहा कि जीवन को संतुलन करने के कई उपाय है। आप सुबह-शाम ध्यान करें। एक दिन ईश्वर के लिए सुरक्षित कर लें। उस दिन सिर्फ और सिर्फ ध्यान करें। अच्छा रहेगा कि उस दिन उपवास रह जाये। ग्रुप मेडिटेशन करें। परिवार में सामंजस्यता बनाये रखें। रिट्रीट आदि में भाग लें।
