सर्वाधिक कठिन आध्यात्मिक यात्रा को संपन्न कर लौटे नर्मदा यात्री दीपक चंदन महतो का स्वागत करने व उनको सुनने के लिए रांची के अपर बाजार में जुटा आध्यात्मिक पिपासुओं का समूह
पहली बार रांची के अपर बाजार में आध्यात्मिक पिपासुओं की एक सभा आज देखने को मिली। जिसमें समाज के लब्धप्रतिष्ठित लोग शामिल हुए और धर्म तथा आध्यात्म की एक नई यात्रा का शुभारंभ देखने को मिला। जो रेखांकित कर दिया कि लोगों की सोच बदल रही हैं। धर्म को इवेन्ट बना देने के इस युग में भी लोग धर्म के मूल स्वरूप को बचाने की चेष्टा में लगे हैं। लोग अपनी चेतना को उधर मोड़ रहे हैं। जिधर प्रत्येक आत्मा को होनी चाहिए।
सत्यनारायण शर्मा ‘सत्यम’ के आवास पर यह सभा बुलाई गई थी। नर्मदा यात्री दीपक चंदन महतो का स्वागत करने के लिए तथा दीपक चंदन महतो के उनके अनुभवों को सुनने के लिए कि उन्होंने कैसे नर्मदा जी की कठिन परिक्रमा को पूरा किया और इस आध्यात्मिक कार्यक्रम के मंथन में जो चीजें निकलकर बाहर आई। वो प्रत्येक व्यक्ति जो आध्यात्मिक चिन्तन में लगा रहता हैं। उसे पढ़ना चाहिए। जानना चाहिए और इसमें डूब जाना चाहिए।
भारतीय वन सेवा से जुड़े मुख्य वन संरक्षक सिद्धार्थ त्रिपाठी के शब्दों में उन्हें जबलपुर में मां नर्मदा के दर्शन तो हुए। लेकिन उन्हें मां नर्मदा का परिक्रमा का अवसर नहीं मिला। दूसरी ओर रांची के ग्राम पतराहातू, सिल्ली निवासी दीपक चंदन महतो जी ने इस दुर्लभ व अत्यंत कठिन यात्रा को छः महीने में ही पूरा कर लिया है। इसीलिए उन्हें यह कहने में कोई गुरेज नहीं कि जीवन सबसे बड़ा एक्सीडेंट का परिणाम है। आत्मा कहीं भी जन्म ले सकती है। वो किसी महल में भी जन्म ले सकती है, तो किसी फुटपाथ पर भी जन्म ले सकती है।
सिद्धार्थ त्रिपाठी के शब्दों में, उन्होंने कभी किसी महात्मा से पूछा था कि ईश्वर अगर दयालु है, समदर्शी हैं तो ऐसा क्यों करता हैं कि किसी को धनी घर में जन्म दे देता है तो किसी को निर्धन के घर में, जहां अन्न के लिए भी उसे जीवन भर संघर्ष करना पड़ता है। तब उन्हें महात्मा ने कहा था कि हमलोगों ने जिस धर्म में जन्म लिया है। उसकी अपनी अलग ही महिमा है। ये अन्यत्र नहीं दिखता। इसका अनुभव भी अन्यत्र नहीं हो सकता। ये सब अपना ही करा-कराया होता है। जो हमारे प्रारब्ध से जुड़ा होता है। हमारे जीवन में जितने भी उथल-पुथल होते हैं। वे सभी प्रारब्ध ही निर्धारित करती हैं। हम चाहकर भी कुछ नहीं कर सकते।
सिद्धार्थ त्रिपाठी कहते हैं कि दीपक जी की जिजीविषा देखिये। उन पर ईश्वर की कृपा देखिये। वे कम ही उम्र में सभी 12 ज्योतिर्लिंगों के दर्शन कर चुके हैं। पंच कैलाश में तीन कैलाश के भी दर्शन कर चुके हैं। मां नर्मदा की कठिन यात्रा भी पूरी कर ली है। आखिर ये कैसे हुआ? यही प्रारब्ध है। जो सभी को प्राप्त नहीं होता। वे आगे कहते हैं कि कोई भी आत्मा आपको दीक्षा दे सकती हैं। कोई भी आत्मा आपका पथ प्रदर्शक, गुरु बन सकता है। अगर आपको गुरु पहचानने की क्षमता है तो, नहीं तो आप चलते चले जायेंगे गुरु की तलाश कभी पूरी नहीं होगी।
उन्होंने सभी से करवद्ध प्रार्थना की, कहा आप सनातनी है, चित्र की पूजा जरुर कीजिये, लेकिन जिस चित्र की पूजा कर रहे हैं, उनके चरित्रों को धारण करने की कोशिश अवश्य करें। नहीं तो, चित्र की पूजा करने से आपको कुछ भी प्राप्त नहीं होगा। उन्होंने कहा कि सर्वश्रेष्ठ राजनीतिक ग्रंथ हमारे पास, लेकिन हमें कहा गया कि हमें महाभारत नहीं पढ़ना चाहिए, क्योकि महाभारत घर में रखने से, पढ़ने से घर में युद्ध छिड़ जाता है। जबकि इसी महाभारत के एक खंड में श्रीमद्भगवद्गीता छुपी है। दरअसल हमें अपने जड़ से काटने का जो प्रयास किया गया और जो हम अपने जड़ से कटते चले गये। उसका ही दुष्परिणाम है कि हम संकट में हैं। यह कितना दुर्भाग्य है कि हमने खुद अपने अनुष्ठानों को इवेन्ट बनाकर रख दिया। पूजा के नाम पर पंडालों में कम्पीटिशन करा रहे हैं। ये सब ठीक नहीं। इन सभी से बचें, तभी हमारा कल्याण होगा।
अत्यंत दुर्लभ नर्मदा व पंच केदार यात्रा संपन्न कर लौटे नर्मदा यात्री दीपक चंदन महतो ने अपने अनुभवों को सुनाते हुए कहा कि जब वे एक बार गंगा-यमुना-सरस्वती के संगम तट पर यानी प्रयागराज पहुंचे तो वहां एक उन्हें संत मिले। जिन्होंने उन्हें नर्मदा परिक्रमा करने को प्रेरित किया। जिसके बाद वे नंगे पैर नर्मदा की परिक्रमा करने के लिए चल पड़े। अमरकंटक से नंगे पैर तथा बिना किसी पैसे के वे मां नर्मदा की परिक्रमा करने निकल पड़े। यात्रा में निकलने पर कुछ ही दूर चले थे कि एक किलोमीटर पर एक संत मिले। जिन्होंने उन्हें कमंडल और दंड दिया तथा कहा कि हमेशा सदाव्रत करना। उनकी बताई बातों को उन्होंने गिरह बांध लिया और फिर आगे चल पड़े। रास्ते में कभी घने जंगल मिलते, तो कभी पंकीले जमीन, तो कभी चूभनेवाले पत्थर, उसके बाद भी आनन्द की, वो अलौकिक शक्ति हृदय में महसूस होती, जिससे उनकी नर्मदा परिक्रमा और आसान होती जाती। जंगलों में कई लोग, वनवासियों का समूह, संतों का समूह उनका सम्मान करता, भोग-प्रसाद खिलाता और रास्ता सुगम होता जाता।
नर्मदा यात्री दीपक चंदन महतो ने बताया कि यह नर्मदा परिक्रमा यानी अमरकंटक से लेकर खम्भात तक की यात्रा उन्होंने इस प्रकार से 179 दिनों में पूरा कर ली। नर्मदा परिक्रमा पूरी करने के बाद उन्होंने नर्मदा का जल ओंकारेश्वर जो कि द्वादश ज्योर्तिलिंगों में से एक हैं। वहां भगवान ओंकारेश्वर को समर्पित किया। क्योंकि बिना ओंकारेश्वर को जल अर्पित किये। नर्मदा परिक्रमा पूरी नहीं होती। हालांकि नर्मदा परिक्रमा करने के बाद मां नर्मदा का जल आप किसी भी ज्योतिर्लिंग पर चढ़ा सकते हैं।
दीपक चंदन महतो ने यह भी कहा कि इसके बाद उन्होंने पंच कैलाश की भी यात्रा शुरु की। जो अत्यंत दुर्लभ व कठिन यात्रा थी। उन्होंने श्रीखंड कैलाश, किन्नौर कैलाश, मणि महेश कैलाश, फिर आदि कैलाश की यात्रा शुरु की। आदि कैलाश की यात्रा इसलिए पूरी नहीं हो सकी, क्योंकि उस समय सरकार द्वारा उस रूट को बंद कर दिया गया था। क्योंकि उधर उस वक्त भू-स्खलन हुआ था। बाद में फिर वहां से वे नेपाल पशुपतिनाथ मंदिर पहुंचे। जहां उसी वक्त नेपाल में आंदोलन शुरु हो गया। जिसके बाद वे अपने गांव झारखण्ड लौटे।
इस दुर्लभ व कठिन यात्रा को संपन्न कर लौटने के बाद, जब अपर बाजार निवासी व आध्यात्मिकता से ओत-प्रोत व्यक्ति सत्य नारायण शर्मा ‘सत्यम’ को इस बात की जानकारी मिली। तब उन्होंने अपने आवास पर एक आध्यात्मिक कार्यक्रम का आयोजन किया। जिसमें मुख्य वन संरक्षक सिद्धार्थ त्रिपाठी, नर्मदा परिक्रमा को पूर्ण कर लौटे दीपक चंदन महतो, राजेश कुमार मंडल एग्जीक्यूटिव इंजीनियर, जेबीवीएनएल, शिशुपाल जी, थाना प्रभारी, आरपीएफ, रांची, सुमन झा, इंस्पेक्टर, आरपीएफ, डीआरएम रांची, डा. जीएस मंगत, सुप्रसिद्ध नेत्र चिकित्सक, योगदा सत्संग अस्पताल, डा. अनुज, रिम्स, ओंकार पांडेय, स्टोर इंचार्ज, नगर निगम, कमल केडिया, ट्रस्टी, सेवा सदन, समाजसेवी धनंजय रायपत, सुशील कुमार लाल, एन के शाही, पूर्व एलडीसी, रांची, उच्च न्यायालय के वरीय अधिवक्ता श्रीनू गरपति समेत कई आध्यात्मिक रुचियों वाले लोगों ने रुचि ली।
दीपक चंदन महतो जैसे ही आध्यात्मिक कार्यक्रम में पहुंचे। सत्य नारायण शर्मा ‘सत्यम’ और उनकी पत्नी ने थाल में दीपक चंदन महतो का चरण पखार कर उनका स्वागत किया। मंच पर उन्हें बड़े सम्मान के साथ प्रतिष्ठित किया। मां नर्मदा के चित्र के समक्ष एक विशाल दीप को प्रज्जवलित किया गया। बाद में वहां उपस्थित सभी आध्यात्मिक पिपासुओं ने मां नर्मदा के चित्र पर पुष्प अर्पित कर उनका आशीर्वाद ग्रहण किया।
जो मां नर्मदा की परिक्रमा के बारे में जानते हैं, ऐसे लोगों की बातें निराली है। पर आम लोगों, खासकर आध्यात्मिक सुख प्राप्त करनेवालों को मां नर्मदा की इस परिक्रमा के बारे में जानना चाहिए। मां नर्मदा की यात्रा अमरकंटक से उसके संगम स्थल खंभात की खाड़ी तक पैदल की जाती है। इस संपूर्ण परिक्रमा को करने में तीन वर्ष, तीन महीने और 13 दिन लगते हैं। मां नर्मदा की पूरी पैदल परिक्रमा करीब 3600 किलोमीटर की है। जो ब्रह्मांड की सबसे कठिन यात्रा है। जिसमें भक्त नदी को दाहिनी ओर रखते हुए उनकी परिक्रमा करते हैं। यह यात्रा केवल आध्यात्मिक आस्था की प्रतीक ही नहीं हैं, बल्कि प्रकृति के साथ गहन संबंध को दर्शाती हैं।
नर्मदा परिक्रमा मोक्ष प्राप्ति और जन्म-जन्म के पापों के क्षय के लिए की जाती हैं। यह गहन आध्यात्मिक यात्रा है, जो भक्त को पवित्र नदी, संतों, दिव्य आत्माओं और परमात्मा से जोड़ती है। परिक्रमा करनेवाले शुद्ध चित्त और भक्तिभाव से हर कदम पर पाप नष्ट करते हुए निष्पाप और दुखों से मुक्त हो जाते हैं। यह परमात्मा से गहरा संबंध भी स्थापित कराती है। नर्मदा को तरल शिव और तरल ब्रह्म के रूप में देखा जाता है। परिक्रमा करते समय व्यक्ति शिव, ब्रह्म और तट पर तपस्यारत संतों की भी परिक्रमा करता है। नर्मदा नदी के किनारे पाये जानेवाले कंकर भी शिवलिंग के समान होते हैं, इसलिए हर कंकर शंकर का स्वरूप माना जाता है। यह परिक्रमा शारीरिक क्रिया के साथ-साथ आस्था, भक्ति और आत्म-खोज की एक यात्रा है।