रांची में कुछ क्लबों-पूजा समितियों ने भक्ति का उड़ाया माखौल, अखबारों/चैनलों ने दिया उनका साथ, कहीं नहीं दिखे भक्त, भक्ति की जगह सेल्फी व रील्स ने ली
दुर्गा सप्तशती का द्वादश अध्याय कहता है – शरत्काले महापूजा क्रियते या च वार्षिकी। तस्यां ममैतन्माहात्म्यं श्रुत्वा भक्तिसमन्वितः।। सर्वाबाधा विनिर्मुक्तो धनधान्यसमन्वितः। मनुष्यो मत्प्रसादेन भविष्यति न संशयः।। अर्थात् शरतकाल में जो वार्षिक महापूजा करते हैं और उसमें इस मेरी महात्म्य को भक्तिपूर्वक सुनते हैं। वे मनुष्य मेरे प्रसाद से बिना संशय के सभी बाधाओं से मुक्त, धन-धान्य पुत्रादि से युक्त होंगे।
देवी भागवत पुराण कहता है – शरत्काले महापूजा कर्तव्या मम सर्वदा। नवरात्र विधानेन भक्तिभाव युतेन च। अर्थात् शरद ऋतु में जब नवरात्र आये तो उस समय देवी कहती हैं कि मेरी पूजा विशिष्ट प्रकार से करनी चाहिए। लेकिन रांची की कुछ दुर्गा पूजा समितियां, यहां के मीडियाकर्मी और यहां के लोग कर क्या रहे हैं?
भक्ति को अपने-अपने घरों के ताखाओं पर रखकर वो सारे कुकर्म कर रहे हैं। जिसकी मां न तो इजाजत देती हैं और न ही उनके द्वारा की जानीवाली कृत्यों से प्रसन्न होती हैं। यही कारण है कि दुर्गापूजा संपन्न हो जाने के बाद भी जो लोग स्वयं को यह कहते नहीं थकते कि उन्होंने इस बार दुर्गा पूजा धूमधाम से मनाई। पंडालों पर करोड़ों खर्च किये। राजनीतिक दलों के नेताओं को अपने पंडालों में बुलाकर, अपने पंडालों का उद्घाटन करवाया।
अपने अखबारों/चैनलों/पोर्टलों में इस वर्ष बहुत अच्छे ढंग से पूजा के आयोजनों का कवर किया। उन सारे के घरों में दुख-शोक और विनाश के संकेत शीघ्र ही नजर आने लगते हैं और वे वर्ष भर नाना प्रकार के शोक से युक्त होकर अपना, अपने परिवार और अपने समाज सभी को तहस-नहस कर डालते हैं और दोष किसको देते हैं तो वे सारा दोष ईश्वर पर मढ़ देते हैं। जबकि उनके विनाश का कारण वे स्वयं होते हैं।
मैं इस बार भी रांची के दुर्गा पूजा का अवलोकन करने अपने घर से निकला। पर मुझे इस बार भी निराशा देखने को मिली। मैं जहां भी गया। मुझे कही भी भक्ति नहीं दिखी। कही भी मां की प्रतिमा में वो दिव्यता देखने को नहीं मिली, जो दिव्यता मां की प्रतिमा में होती हैं और जिन प्रतिमाओं को देख एक भक्त भावविह्वल हो उठता है। इसका मूल कारण था कि रांची में जितने भी पूजा समितियां हैं। उन्होंने भक्ति के स्थान को गौण कर, व्यवसायिकता तथा स्वयं को समाज में कैसे प्रतिष्ठापित किया जाय? इसी पर ज्यादा ध्यान दे डाला। नतीजा ये हुआ कि मां की प्रतिमा तो दिखी, लेकिन मां ने उन पंडालों में रहना नहीं स्वीकारा।
आप जरा खुद दिमाग पर जोर डालिये। जो मां जगदम्बा है। जो समस्त कष्टों को हरनेवाली है। उनके दरबार, उनके पंडालों का उद्घाटन या उक्त पंडाल में मां की प्रतिमा के साथ उस व्यक्ति की भी प्रतिमा दिखेगी। जिसके हाथ खून से सने हैं। जो लाखों-करोड़ों लोगों के सपनों को रौंद डाला/डाली है। जो महाभ्रष्ट हैं। जो अदालत से कई बार दंडित हो चुका/चुकी हैं और जब आप ऐसे कुकर्म करते हैं तो आप मां के कोप से बच कैसे सकते हैं।
यही नहीं, जो लोग ऐसे पंडालों में जाकर इस प्रकार के भ्रष्ट, खून से सने हाथों, लाखों-करोड़ों के सपनों को नष्ट करनेवाले लोगों की प्रतिमाओं के देखने के लिए कई किलोमीटर की दूरी तय करने में भी शर्म महसूस नहीं करते। उसका महिमामंडन अपने अखबारों/चैनलों/पोर्टलों पर करते हैं। ऐसे लोगों पर मां कैसे दया करेंगी? मां तो उन्हें दंड अवश्य देंगी और यह दंड मिलने में ज्यादा देर नहीं लगती। एक वर्ष काफी है।
अब जरा देखिये न। एक चैनल ने डांडिया के नाम पर भक्ति के नाम पर क्या परोसा? अरे मूर्खों डांडिया देखना है, तो गुजरात जाओ। गुजरात में भी उस गुजराती के घर जाओ, जो मां का अनन्य भक्त है। तुम देखोगे कि नवरात्र में एक गुजराती मां की प्रतिमा बीचोंबीच स्थापित कर, उन्हें भक्तिभाव से पूजित करता हैं और फिर डांडिया नृत्य करते हुए मां के भजन गाते हुए, उन्हें रिझाता है और तुम कर क्या रहे थे?
इसी प्रकार आरआर स्पोर्टिंग क्लब जाइये। पहले तो इस क्लब ने चर्च का मॉडलवाला पंडाल बनाया, फिर उसमें जीसस क्राइस्ट और उससे जुड़ी कुछ लोगों की तस्वीरें लगाई। जब लोगों ने आक्रोश प्रकट किया तो उसने अपनी गलती सुधारने की असफल कोशिश की। लेकिन इस पंडाल में जो सबसे बड़ी गलती हुई। उस पर किसी का ध्यान ही नहीं। ध्यान रहेगा भी कैसे। हृदय में भक्ति जो नहीं हैं। भक्ति के स्थान पर तो पंडाल किसने बढ़िया बनाया? उस पर ध्यान चला गया तो मां की भक्ति कैसे दिखेगी?
जरा देखिये, इस पंडाल में विराजित महाशक्ति की प्रतिमा और उनके परिवारों को। भगवान गणेश, भगवान कार्तिकेय, मां लक्ष्मी और मां सरस्वती को प्रणाम करते हुए मुद्रा में स्थापित कर दिया गया और इन सभी का मुख पंडाल में विराजमान दर्शकों (मैं इन्हें दर्शक ही कहुंगा क्योंकि दर्शक और भक्त में बहुत अंतर होता है।) की मुख की ओर हैं। अब इसका मतलब क्या हुआ? मतलब साफ है कि भगवान गणेश, भगवान कार्तिकेय, मां लक्ष्मी और मां सरस्वती, पंडाल में आये सारे दर्शकों का स्वागत कर रहे हैं और प्रणाम कर रहे हैं, कि आप हमें देखने आये, इसके लिए शुक्रिया।
अब आप खुद बताइये, कि क्या भगवान/हमारे आराध्य हमें प्रणाम करेंगे कि हम उन्हें प्रणाम करेंगे और उनका आशीर्वाद लेंगे। लेकिन पूजा समितियां जो न करा दें। ये आरआर स्पोर्टिंग क्लब जो न करा दे। इसे भक्ति और पूजा से क्या मतलब? इसको तो अपने झूठी इज्जत और प्रतिष्ठा मिल जाये, इसी में यह शान समझ रहा है और बचा खुचा काम नामकुम की पूजा समिति ने कर दी। ले-देकर मुर्खों से भरे संवाददाताओं/संपादकों की टीम जो आजकल रांची के विभिन्न अखबारों/चैनलों व पोर्टलों में भर चुके हैं। उन्होंने कर दी। जो मन किया। लिख दिया। जो मन किया। परोस दिया और लो, दुर्गा पूजा मन गई।
याद रखिये। दुर्गा पूजा को दुर्गोत्सव मना देनेवालों। दुर्गोत्सव का संधि विच्छेद कर लो। दुर्ग+उत्सव – दुर्गोत्सव। दुर्ग का मतलब किला होता है। तुमलोगों ने जो किला का उत्सव मनाने का काम किया है। उसका प्रत्यक्ष उदाहरण देखने को मिल रहा है। लोग अब मां का दर्शन करने नहीं, वे रील बनाने जा रहे हैं। वे स्वयं को मां की तरफ पीठ करके फोटो खींचवाते हैं। वे भक्ति का अर्थ व भाव को कब के ताखा पर रखकर तुम जैसे अधकचरे मीडियावालों के इशारों पर नाचने शुरु कर दिये हैं।
ये अभी चलेगा, क्योंकि विनाश का चरण अभी पूरा नहीं हुआ हैं। ये तो अभी और चलेगा। जब ये विनाश अंतिम छोर पर पहुंचेगा, लोग जब स्वयं को नाश करना स्वयं से प्रारम्भ करेंगे तब जाकर कहीं से ज्योति निकलेगी और फिर प्रकाश फैलेगा। लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी होगी। मैं देख रहा हूं कि कल तक पश्चिम जो भौतिकवाद में लिप्त था, आज वहां के लोग भारत की ओर देख, स्वयं को देवत्व के निकट ला रहे हैं और हम भारतीय रील्स के चक्कर में स्वयं को तबाह करने में लगे हैं। आश्चर्य इस बात की भी है कि इसी झूठ के चक्कर में वे स्वयं को आनन्दित भी महसूस कर रहे हैं।