श्रद्धांजलिः चंद्रशेखर दूबे उर्फ ददई दूबे जैसे लोग कभी मरते नहीं, वे अपने चाहनेवालों की यादों में हमेशा जीवित रहते हैं
नौ जुलाई को जब झारखण्ड कांग्रेस के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष राजेश ठाकुर दिल्ली स्थित सर गंगा राम अस्पताल में इलाजरत चंद्रशेखर दूबे उर्फ ददई दूबे को देखने गये, तब लोगों को पता चला कि चंद्रशेखर दूबे बहुत दिनों से बीमार है। दिल्ली स्थित सर गंगा राम अस्पताल में उनका इलाज चल रहा है और ठीक एक दिन बाद यानी दस जुलाई को चंद्रशेखर दूबे उर्फ ददई दूबे के निधन का समाचार भी आ गया। चंद्रशेखर दूबे के निधन से उनके चाहनेवाले बड़ी दुखी हैं। दुखी हो भी क्यों नहीं? चंद्रशेखर दूबे उर्फ ददई दूबे थे ही ऐसे।
डालटनगंज निवासी व आपातकाल के समय लगभग डेढ़ वर्ष से भी ज्यादा जेल में बंद रहनेवाले रवि शंकर पांडेय अपने सोशल साइट फेसबुक पर लिखते हैं कि पूर्व मंत्री एवं महान मजदूर नेता स्व०चन्द्रशेखर दूबे जी का महा प्रयाण देश के लिए एक अपूरणीय क्षति है। ये वो सख्शियत जिसे कोई दबा न सका। रवि शंकर पांडेय श्रद्धांजलि देने के क्रम में आगे लिखते हैं …
कोशिशें तो की मगर कोई उसे झुका न सका।
दोस्तों का दोस्त वो दुश्मन के लिए काल था।।
मिसाल क्या दूं उसे बंदा जो बेमिसाल था।।
जो ठान लिया खुद राह बना कर आगे जाना है।
पथ रोक दे उसका कोई किसका भला मजाल था?
कमाल पैदा किया उसने चुना जो लक्ष्य कोई।
कमाल का बंदा ऐसा कि खुद ही एक कमाल था।।
जमीन का नेता था सदैव जमीन से जुड़ा रहा।
देश भर में ख्याति थी पर झारखंड का लाल था।।
बड़ों का आशीर्वाद मिला, छोटों से बेशुमार श्रद्धा।
शुभेच्छाओं से वह तो हर कदम पे मालोमाल था।।
“बड़े भाई चन्द्रशेखर दुबे उर्फ ददई के निधन की सूचना से मैं न केवल बेहद मर्माहत हुआ हूं अपितु अत्यंत भावुक भी हुआ हूं। उनसे पचास साल का मेरा अन्तरंग रिश्ता रहा है। बिल्कुल नि: स्वार्थ एवं आत्मीयता से लबरेज। सन् १९७५ में आपातकाल के दौरान वह भी मीसा के अन्तर्गत डाल्टनगंज मंडल कारा में नज़रबंद थे। और मैं तो था ही। दुबे जी पर क्यों मीसा लगा था? क्यों कि जब वह राजनीति में बहुत अधिक सक्रिय नहीं थे। तब भी उनकी दहाड़ सुनाई देती थी। चाहे जहां भी हों।
उनके पीछे चलने वालों का भी एक काफिला होता था। आपातकाल के दिनों में ऐसे लोगों को चुन चुन कर कारागार में बंदी बना लिया गया था। सो दुबे जी भी आ गये। वहीं से उनके साथ मेरा आत्मीय लगाव हुआ। जिसमें विचारधारा वाली बात कही आड़े नहीं आई। मेरी पृष्ठभूमि विद्यार्थी परिषद और संघ की थी और वह विशुद्ध कांग्रेसी थे। पर थे तो थे। हमारे उनके बीच जो आत्मीयता बन चुकी थी उसके ऊपर इन बातों का कोई असर नहीं था। परंतु उससे भी पहले कि एक घटना मुझे याद है।
१९७७ में जब जनता पार्टी की सरकार बनी तो मैं रांची में लॉ का विद्यार्थी था। पूरन चंद जी खनन मंत्री थे। एक बार वह रांची आए थे तो हमलोग कुछ विद्यार्थी उनसे मिलने परिसदन में गये। बलराम तिवारी भी थे। पूरन जी को कचरा बचरा माइन्स एरिया विजिट करने जाना था। पूरन जी ने हमलोगों को भी एक गाड़ी दिलवा दी। मैं और बलराम तिवारी साथ थे। संयोग से बचरा में तीन चार सौ मजदूरों के साथ ददई दूबे आ गये। उन्होंने पूरन जी को एक आवेदन दिया। जिसमें वह ट्रेड यूनियन की मान्यता के लिए पूरन जी की अनुशंसा चाहते थे। परंतु १९७७ में वह मझिआंव विश्राम पुर विधानसभा क्षेत्र से निर्दलीय चुनाव लड़े थे।
सो पूरन जी ने फटकार लगाते हुए उनके आवेदन को फाड़ दिया। फिर क्या था? ददई दूबे ने प्रशासन के सामने खुली चुनौती दे दी कि आज शाम जो आपकी सभा होने वाली है, उसे नहीं होने दूंगा। वह मुझे अपने साथ कुछ दूर तक लेते गए और बोले रवि बाबू आज शाम का नजारा देखिएगा। चूंकि मैं पूरनजी के साथ था, इसलिए मैंने उन्हें ऐसा करने से मना किया। मगर शाम छः बजे के लगभग टेंट शामियाना सजा। पूरन जी स्टेज पर आए। दो तीन हजार की भीड़ थी परन्तु सभा शुरू होते ही किसी ने बिजली की लाइन काट दी। किसी ने शामियाना गिरा दिया। फलस्वरूप भगदड़ मच गयी।
ददई दुबे, पहले पूरन जी के ही समर्थक थे। पर उस दिन के बाद से बागी बन गये। आत्मस्वाभिमान पर ठेस जो लगी थी। कुछ समय बाद वह इंटक से जुड़े। वहां बिंदेश्वरी दूबे का उन्हें वरदहस्त प्राप्त हुआ और इंटक में उनकी राष्ट्रीय स्तर पर पहचान बनी। १९८५ में वह मझिआंव विश्रामपुर से पहली बार विधायक बने थे। इस क्षेत्र के वह जनप्रिय विधायक थे। धनबाद से एक बार सांसद भी रहे। झारखंड में भी मंत्री बने। उससे पहले बिहार में मंत्री रह चुके थे। हर दौर में मेरा उनसे मिलना जुलना रहा।
जब बिंदेश्वरी दूबे मुख्यमंत्री बने तो एक दिन दूबे जी ने मुझ से कहा – रविशंकरजी आपका कोई काम है बोलिए। मैं पावर में हूं। आपके लिए कुछ करना चाहता हूं। तब मैं ने कहा – आप ऐसे ही स्नेह बनाए रखिये। वह मेरे लिए कुछ करना चाहते थे और इसके लिए कई तरह का उपाय करते। परंतु उनके साथ मेरा संबंध बिल्कुल स्वान्त: सुखाय था। रांची में जब वह थे तो प्रायः हर दिन उनसे मिलना होता था। उनके फ्लैट में भीड़ भी ऐसी होती थी जैसी भीड़ कहीं और देखने को नहीं मिलती थी।
पर उस भीड़ में भी वह मुझे अपने पास बुला कर बैठाते और कहते कोई काम हो तो बोलिए। भोजन के टेबल पर हाथ पकड़ कर साथ ले जाते। ऐसा रिश्ता था मेरा उनके साथ। वह भी पचास वर्षों का। यादगार संस्मरण ढेरों हैं जिन्हें आज मैं साझा नहीं कर सकता। मन बहुत आहत है। ईश्वर से यही प्रार्थना है कि वह उन्हें अपने श्री चरणों में स्थान दे। महान आत्मा को कोटि कोटि नमन। विनम्र श्रद्धांजलि।”
चंद्रशेखर दूबे से हमारी मुलाकात तब हुई, जब मैं धनबाद में ईटीवी के लिए काम करता था। संयोग से कई बार मैंने उनके खिलाफ समाचार बनाई। एक समाचार तो ऐसा था, जो कंबाईंड बिल्डिंग के पास गांधी जी की प्रतिमा जो रातों रात बदली जा रही थी। उससे संबंधित था। वो समाचार किसी भी अखबार में नहीं छपी और न ही चैनल में चली। लेकिन मेरे यहां तो चलना जरुरी था। चंद्रशेखर दूबे भी रात में ही कह दिये थे कि भाई, सब मान जायेगा। लेकिन ईटीवी नहीं मानेगा। क्योंकि बंदा कृष्ण बिहारी मिश्र है। वे हमेशा सत्य के पक्षधर रहे। चाहे उनका धुर विरोधी भी क्यों न हो। वो भी इस बात को समझता था। आजकल तो थोड़ा किसी राजनीतिज्ञ के बारे में बोल दीजिये, तो वो आपको सदा के लिए अपना दुश्मन बना लेगा। लेकिन ददई दूबे के साथ ऐसा कभी नहीं रहा।
दूबे जी, उस हर आदमी की कद्र करते थे। जिनके अंदर कुछ न कुछ विशेषता रहती थी। खासकर उनके कार्यकर्ता के खिलाफ एक भी व्यक्ति या प्रशासन का आदमी या पत्रकार कुछ भी अनाप-शनाप नहीं बोल सकता था। अगर किसी ने कुछ भी कहने की जुर्रत की, तो वे वहीं उस व्यक्ति या प्रशासनिक अधिकारी को छ्ट्ठी रात की दूध याद दिला देते। उनका कहना था कि अगर कार्यकर्ता को हम सम्मान नहीं देंगे और दिलायेंगे तो फिर कार्यकर्ता हमारे लिए क्यों मरेगा?
हमें याद हैं कि धनबाद स्थित सांसद कार्यालय में एक कार्यक्रम चल रहा था। वहां किसी कांग्रेसी कार्यकर्ता के खिलाफ एक अखबार के पत्रकार ने सांसद चंद्रशेखर दूबे से शिकायत कर दी। फिर क्या था। पत्रकार की ही उन्होंने यह कहकर क्लास ले ली कि तुमसे ज्यादा ईमानदार वो कार्यकर्ता है, जिसके बारे में तुम शिकायत कर रहे हो। उस पत्रकार की सिट्ठी-पिट्ठी गुम हो गई। क्योंकि उसे चंद्रशेखर दूबे से ये आशा नहीं थी। उसे लगा था कि वो अखबार से जुड़ा पत्रकार है, चंद्रशेखर दूबे उसका पक्ष लेंगे। लेकिन दूबे जी तो दूबे जी ठहरें।
मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि आजकल विधायक व सांसद कोटे के लिए जिस प्रकार से मारामारी होती है और जिस प्रकार से सांसद और विधायक अपने कोटे से मिलनेवाले काम के लिए खुद कमीशन खाते हैं। चंद्रशेखर दूबे जब तक सांसद या विधायक रहे, कोई ठेकेदार या प्रशासनिक अधिकारी यह नहीं कह सकता कि चंद्रशेखर दूबे ने कभी किसी से कमीशन लिया हो। वे शुद्ध राजनीतिक चरित्रता के प्रतीक थे।
वे जब भी हमसे मिलते तो एक बात जरुर कहते। मैं वो बात आज उन्हीं के शब्दों में लिखकर अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करता हूं – भइवा, जब भी मिले, कभी हमारा भोजन नहीं किये और न ही चाय पिये। काहे भाई, हमसे कोई नाराजगी है क्या? मैं उन्हें बड़ी ही विनम्रता से कहता कि जो काम मैं कर रहा हूं, उसके लिए संस्था हमें वेतन देती हैं। इसीलिए मैं आपका चाय या भोजन स्वीकार नहीं करता। मेरा प्रत्युत्तर सुनकर वे मुस्कुराकर रह जाया करते। आज वे इस दुनिया में नहीं हैं। कई राजनीतिज्ञ हमारे जीवन में आये। पर मैं दावे के साथ कह सकता हूं। हर व्यक्ति या राजनीतिज्ञों का जीने का अपना-अपना तरीका होता है। चंद्रशेखर दूबे ने जिस प्रकार से अपने जीवन को जीया, उनके चाहनेवाले उन्हें कभी भूल नहीं सकते। उनका जीवन बेदाग रहा है। आज के नेताओं की तरह कमीशनखोरी वाला नहीं रहा।