अपने दैनिक जीवन की पूर्ति के लिए श्रम करता एक मजदूर, वो उस योगी से कही ज्यादा बेहतर है, जो अध्यात्म का दंभ रखकर कर्म से भागने की कोशिश करता हैः स्वामी गोकुलानन्द
आध्यात्मिकता की सर्वोच्च शिखर को प्राप्त करने की कोशिश नहीं करना, ये सोचना की हम कुछ भी कर लें, उस सर्वोच्च शिखर को प्राप्त नहीं कर सकते, ये भाव को अपने मन में उत्पन्न करना ही, ईश्वर से दूर रहने की सोच है, जिसे आध्यात्मिक आलस्य कहा जाता है। ये गूढ़ बातें आज योगदा सत्संग आश्रम के श्रवणालय में आयोजित रविवारीय सत्संग को संबोधित करते हुए योगदा भक्तों के बीच स्वामी गोकुलानन्द ने कही।
उन्होंने कहा कि हम योगी है, सामान्य कार्य नहीं करेंगे। ऐसी सोचवाले लोग योगी होने के बावजूद भी माया में ही घिरे रहते हैं। ऐसे लोग कभी आध्यात्मिक प्रगति नहीं कर पाते। यह भी आध्यात्मिक आलस्य का ही एक रूप है। हमेशा याद रखें कि बेकार की चीजों को त्यागकर, सामान्य लोगों की तरह जीवन यापन करनेवाला ही आध्यात्मिक प्रगति पर रहता है। मतलब ईश्वर जिस हाल में रखें, उसी हाल में रहने की कला ही आध्यात्मिकता का सर्वोच्च मार्ग है।
उन्होंने कहा कि 1970 की बात है। एक बार कुछ दिनों के लिए मां आनन्दमयी रांची यात्रा पर आई। इस दौरान वो योगदा सत्संग आश्रम में भी आई। जहां एक योगदा भक्त उनसे मिलने पहुंचे। योगदा भक्त ने उनसे कहा कि वो हमेशा क्रिया योग में लिप्त रहता है। लेकिन उसे ईश्वर की प्राप्ति नहीं हो रही। मां आनन्दमयी ने कहा कि चेष्टा करो, अर्थात् निष्ठापूर्वक कर्म करो, कोशिश करो। किसी को भी कोई भी आध्यात्मिक सफलता किसी संत के आशीर्वाद से प्राप्त नहीं होती।
उन्होंने कहा कि आध्यात्मिक कृपा व ईश्वरीय आशीर्वाद को स्वतः कोशिश करके प्राप्त करना होता है। ईश्वर-गुरु सिर्फ मार्गदर्शन करते हैं। स्वामी गोकुलानन्द ने इसी पर एक मछुआरा और गंधर्व की कहानी सुनाई। एक मछुआरा जो बहुत ही गरीब था, जैसे-तैसे जीवन यापन कर रहा था। उसकी पत्नी को पता चला कि पास में ही एक गंधर्व रहते हैं। जो सभी को मनोवांछित फल प्रदान करते हैं। अपनी गरीबी से तंग मछुआरा की पत्नी ने मछुआरा पर दबाव बनाया कि वो गंधर्व के पास जाकर अपनी गरीबी से मुक्ति पाने के लिए कुछ वरदान मांगे।
पत्नी के दबाव में आकर मछुआरा, गंधर्व के पास जाकर गया और उनसे धन-संपदा की मांग की, जिससे उसे गरीबी से मुक्ति मिल जाये। गंधर्व ने उसकी मनोकामना पूरी कर दी। मछुआरा, धन-संपदा से युक्त हो गया। इसके बाद मछुआरा की पत्नी को शौक हुआ कि वो रानी की तरह राज करें, वो मछुआरा को कही कि वो फिर गंधर्व के पास जाकर उनसे राज-पाट मांग लें। मछुआरा, गंधर्व से राजपाट मांग लिया और यह मनोकामना भी पूरी हो गई।
इसी बीच भोग-विलास में लिप्त मछुआरा की पत्नी को देर तक सोने की आदत हो गई और उसकी नींद तब टूटती जब सूर्य का प्रकाश उसकी आंखों तक पहुंचता। जिससे उसके देर तक सोने की आदत के कारण नींद में खलल पड़ जाती। उसने मछुआरा से कहा कि वो गंधर्व के पास जाये और गंधर्व से यह वर मांगे कि सूर्योदय तभी हो, जब उसकी पत्नी की नींद टूटे। गंधर्व को यह समझते देर नहीं लगी कि मछुआरा कर्म की प्रधानता को छोड़, आलस्य में डूबता जा रहा है। गंधर्व ने सबक सिखाने की ठानी और उसे पूर्व की हालत में लाकर पटक दिया। बेचारा मछुआरा क्या करता? फिर वो कर्म की गति में पीसता चला गया और अंततः गरीबी में ही उसका दिन गुजरा।
स्वामी गोकुलानन्द ने कहा कि दरअसल ये कहानी बताती है कि बिना मेहनत के जो हमें प्राप्त होता है, उन प्राप्त वस्तुओं का हम इज्जत ही नहीं करते। चाहे वो वस्तु कितना भी प्रासंगिक क्यों न हो? उन्होंने कहा कि कोई क्रिया योग से दीक्षित व्यक्ति भी ये कहे कि उसे ईश्वर नहीं मिल रहे, इसका मतलब है कि उसके पास उसे पाने के लिए न तो उसके पास इच्छा की तीव्रता है और न कड़ी मेहनत करने की दृढ़-शक्ति। जबकि कर्म, ज्ञान और भक्ति से भी सर्वाधिक तीव्रता क्रिया योग में हैं।
उन्होंने श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय 3 के श्लोक संख्या 4 का हवाला देते हुए कहा कि बिना कर्म और ध्यान के निश्चल तत्व को प्राप्त करने की सामर्थ्य किसी में नहीं। योगी इस भाव को जानते हैं। इसलिए वे ईश्वर के ज्यादा निकट हैं। उन्होंने कहा कि महावतार बाबाजी, लाहिड़ी महाशय, युक्तेश्वर गिरि और अपने प्रिय गुरुदेव परमहंस योगानन्द जी ईश्वर को प्राप्त कर चुके थे। फिर भी वे कर्म करते थे। आखिर क्यों? वो इसलिये क्योंकि इसके बिना न कोई संन्यासी है और न कोई योगी। जो भी खुद को योगी या संन्यासी कहता है, उसे भी कर्म करते रहना है। आलसी कभी ईश्वर को प्राप्त नहीं कर सकता।
उन्होंने कहा कि अपने दैनिक जीवन की पूर्ति के लिए श्रम करता एक मजदूर वो उस योगी से कही ज्यादा बेहतर है, जो अध्यात्म का दंभ रखकर कर्म से भागने की कोशिश करता है। उन्होंने कहा कि निद्रा, आलस्य और प्रमाद ये तामसिक प्रवृत्तियां हैं। जो मनुष्य को अंधकार में ले जाती है। निद्रा में पड़ा व्यक्ति पेड़ और पाषाण की तरह हो जाता है। एक जगह स्थिर पड़ा रहता है। आलस्य में पड़ा ऐसा व्यक्ति ईश्वर द्वारा पहले नापसंद किया जाता है। उन्होंने यह भी कहा कि शारीरिक आलस्य से भी ज्यादा खतरनाक मानसिक आलस्यता है। कहने का मतलब है कि किसी काम को दिमाग लगाकर नहीं करना ही मानसिक आलस्यता है। ऐसे लोग न तो भौतिक संसार और न ही आध्यात्मिक दुनिया में सफल हो पाते हैं।
स्वामी गोकुलानन्द ने कहा कि जीवन में कई बाधाएं आती हैं। कुछ लोग उससे संघर्ष करते हैं और सफल होते हैं, क्योंकि ईश्वर उन बाधाओं को हमारी बेहतरी के लिए ही हमारे सामने खड़ी करते हैं। कुछ लोग आलस्य के कारण उन बाधाओं के आगे अपनी हाथें खड़ी कर दते हैं और अपने संपूर्ण जीवन का विनाश कर लेते हैं। उन्होंने कहा कि मन जब-जब भागने की कोशिश करें। उसे पकड़कर अपनी आत्मा में लगाइये। अगर आप ऐसा करते हैं तो आप आलस्य पर विजय प्राप्त कर लेते हैं। कोई भी काम छोटा या बड़ा नहीं होता, हर काम ईश्वरीय कार्य समझकर करिये। इससे जीवन में आलस्य प्रवेश नहीं करेगा।